दक्षिण का सूबा है तेलंगाना। आंध्र से कट कर बना था तेलंगाना। 2 जून 2014 को भारत के नक्शे पर आए तेलंगाना की दो ख़बरे हैं। बहुजन समाज के लिए यह ख़बरें बेहद अहम है। पहली, तेलंगाना में आदिवासियों और वन अधिकारियों में हिंसक झडपें बढ रही है। जद में है, खेती की जमीन। जमीन पर मालिकाना हक को लेकर तकरार लगातार जारी है। सवा सात साल पुराने तेलंगाना में 2019 के बाद से ऐसे 8 मामले सामने आएं हैं। सत्तापक्ष का इल्जाम है कि आदिवासी सरकारी जमीन पर कब्जा जमाए हुए है। लेकिन आदिवासियों का आरोप है कि उनकी परंपरा को धवस्त करने की नीयत है।
इसीबीच, तेलंगाना की नई आबकारी नीति में दलितों, पिछडों के लिए 30 फीसद आरक्षण का प्रावधान किया गया है। याने तेलंगाना में अब शराब के कारोबार पर सिर्फ स्वर्णों का हक नहीं रह जाएगा। मुल्क के बाकी हिस्सों में शराब के कारोबार में दलितों, पिछडों को ऐसा मुकाम हासिल नहीं है। जिस मुकाम को तेलंगाना सरकार देने की सोच रही है। सरकार का फैसला लागू हो जाता है तो समाज में बराबरी की उम्मीदें जगेगी। बाबा साहेब भीम राव अंबेदकर का समाजिक बराबरी का मकसद थोडा सा कामयाब होगा।
शराब को लेकर दलित और पिछडे सबसे ज्याद बदनाम रहे हैं। कई किताबों में उल्लेख है कि कैसे दलित और पिछडा वर्ग मजदूरी के बाद शराब को आपना पहला शौक समझता है। शरीब पीने के बाद यह वर्ग झगडे पर उतारा हो जाता है। इसलिए सभ्य समाज में शराब को लेकर तर्क-वितर्क चलते रहे हैं, चलते रहेंगे। लेकिन शराब ही सरकारों के ख़जाने भरती है। इसका सबूत कोरोना महामारी के पहले दौर में सामने आ चुका है। लॉकडाउन के बावजूद सरकार को आपना ख़जाना भरने के लिए शराब की दुकानें खोलने को मजबूर होना पडा था।
शराब की भूमिका लोकतंत्र के सबसे बडे पर्व चुनाव में भी खास होती है। सदियों से चुनाव जीतने के लिए सियासी पार्टियां चुनाव में शराब का सहारा लेती रही हैं। ज़माना बदलने के साथ ही शराब के साथ राशन, साडियां और नकदी का प्रचलन भी बढने लगा। जिसने चुनाव महंगा कर दिया और चुनाव में लगातार ब्लैकमनी का प्रचलन बढने लगा। खैर, तेलंगाना की इस पहल से दलितों, आदिवासियों और पिछडों को बिजनेस की नई बारीकियां सीखने को तो मिलेगा। इसका अनुसरण मुल्क में बढेगा। जिसका फायदा मेरे दलित, आदिवासी और पिछडा समाज को मिलेगा। तेलंगाना की एक्साइज पालिसी के कई कायल हैं। दूसरे सूबों में तेलंगाना की पालिसी की जमकर तारीफ भी होती है। तेलंगाना को शराब के लाइसेंस और बिक्री से सालाना 25,000 करोड़ रुपए से अधिक राजस्व मिलता है। नई नीति से सरकार के खडाने में 40 फीसद तक की बढोतरी होगी। याने शराबियों के योगदान से सूबे में विकास होगा। तेलंगाना सरकार ने एक्साइज पालिसी को लेकर दलितों, आदिवासियों और पिछडों के लिए जो दरियादिली दिखाई है। कॉश ! लेकर दरियादिली आदिवासियों की खेती की जमीन को लेकर भी दिखाई जाए। तेलंगाना के वन अधिकारियों का कहना है कि विरोध कर रहे आदिवासियों ने जमीनों पर ‘अतिक्रमण’ किया हुआ है और उसपर अवैध रूप से खेती कर रहे हैं। अधिकारियों का मानना है कि सूबे में करीब 66 लाख एकड़ जमीन वन भूमि के तौर पर चिन्हित है और 8 लाख एकड़ से अधिक जमीन अतिक्रमण का शिकार है।
विवाद और बडे इससे पहले ही तेलंगाना सरकार को इसका हल निकाल आदर्श सूबा बनने की ओर बढना चाहिए। अगर 8 लाख एकड जमीन आदिवासियों की है तो सरकार बची हुई 58 लाख एकड भूमि पर आपनी योजनाओं को आगे बढाएं। उसमें भी आदिवासियों का सहयोग लिया जाए तो और अच्छा होगा। तेलगू और उर्दू जुबान का मिश्रण नई मिठास बढाएगा। तनाव आज की सबसे बडी बीमारी है। जात-पात, ऊंच-नीच एस तनाव और बढाता है। आदिवासियों का तनाव कम कर सीएम के चंदरशेकर राव मुल्क में नए मॉडल बन सकते हैं।
-मनोज नैय्यर
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